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23.8.17

कविता !




कविता ! 
तुम टूट गयीं , मुझ सी ,

कुछ टूटे-फूटे दांत लिए, 
कुछ दबे हुए संवाद लिए 
कुछ अपनापन , विच्छिन्न , विवश 
कुछ विषम प्रकृति का स्वाद लिए ...

कविता !
 तुम छूट गयीं , मुझ सी 

ज्यों अल्प प्राण पर बुढिया सी ,
ज्यों एक वयस्का के गुड़िया सी,
ज्यों ठन्डे बोतल की गड-गड पर
होती हालत है हँड़िया की..

क्यों बदल न पायीं कविता तुम ! शायद तुम मेरे जैसी हो..
जो पढ़े , वही पहचानेगा , तुम जैसी थीं , तुम वैसी हो ....

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