कविता !
तुम टूट गयीं , मुझ सी ,
कुछ टूटे-फूटे दांत लिए,
कुछ दबे हुए संवाद लिए
कुछ अपनापन , विच्छिन्न , विवश
कुछ विषम प्रकृति का स्वाद लिए ...
कुछ दबे हुए संवाद लिए
कुछ अपनापन , विच्छिन्न , विवश
कुछ विषम प्रकृति का स्वाद लिए ...
कविता !
तुम छूट गयीं , मुझ सी
ज्यों अल्प प्राण पर बुढिया सी ,
ज्यों एक वयस्का के गुड़िया सी,
ज्यों ठन्डे बोतल की गड-गड पर
होती हालत है हँड़िया की..
ज्यों एक वयस्का के गुड़िया सी,
ज्यों ठन्डे बोतल की गड-गड पर
होती हालत है हँड़िया की..
क्यों बदल न पायीं कविता तुम ! शायद तुम मेरे जैसी हो..
जो पढ़े , वही पहचानेगा , तुम जैसी थीं , तुम वैसी हो ....
जो पढ़े , वही पहचानेगा , तुम जैसी थीं , तुम वैसी हो ....
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