आह्वान .........
कुछ भी न सार्थक जीवन में, मैं बंधा हार के बंधन में ,
करबद्ध व्यर्थ ही खड़ा रहा , मंदिर के सूने प्रांगण में।
स्वार्थ व्यर्थ , परमार्थ व्यर्थ , अवरुद्ध हुआ चीत्कार व्यर्थ
मैं दीन , दलित सा खड़ा हुआ , अर्चना व्यर्थ , प्रार्थना व्यर्थ।
अपने ही पैरों को छूकर , आशोष दे रहे हाथ मेरे,
मैं भूला , खुद को ढूंढ रहा, कोई न कभी ना साथ मेरे।
सम्बन्ध जटिल, अधिकार कुण्ठ , मनु किससे बांटे पीड़ापन ,
डाटा श्रेणी में मत गिनना , मई सतत अकिंचन , हे श्रीमन !
अधिकार वात्सल्य का खोया, खोया श्रद्धा का अपनापन ,
दुहिता की इच्छा खोयी, खोया श्रावण का रक्षा बंधन।
रंगों की गरिमा खोयी , खोया संबंधों का दर्पण ,
खोये टूटे से बंधे तार , खोया पल पल अपना जीवन।
कितना निराश है यह जीवन, अभिलाषा है पर डरी डरी,
आधी से ज़्यादा उम्र हुयी , क्या करे ! कोसती खड़ी खड़ी।
हर बार पराजय मेरी क्यों , मेरे श्रम का क्यों दाम नहीं ,
मैं भाग्यहीन क्या इतना हूँ , एक पल को भी विश्राम नहीं ?
प्रतिबिम्ब रक्त का कहीं नहीं, कुछ धब्बे हैं धुंधलाए से ,
कुछ भूली बिसरी यादों को , हम देख रहे बौराये से।
बाबू जी की उंगली पकड़े , हूँ पार कर रहा गलियारा ,
अम्मा ने मुझको उठा लिया , आया जो ज़रा सा अँधियारा।
बहना की छोटी पकड़े , हूँ घूम रहा छत के ऊपर ,
छोटे भाई को गिरा दिया , सीखते हुए सायकिल चढ़ कर।
माँ की ममता ने बांधा था म संबंधों का सुन्दर बंधन।
आँखें मूँदी , सब छूट गया, रह गया सिर्फ कला दर्पण।
न जाने कितने जन्मों तक, थोड़ा सिन्दूर छिड़कने को,
लेना पड़ता फिर जन्म मुझे, सम्पूर्ण तपस्या करने को।
मैं भाग्यहीन मिट्टी - मानव, कर्मों में लिप्त रहूँ तो क्या ?
मैं नर हूँ, नारायण तो नहीं , फल की इच्छा न करूँ तो क्या ?
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