लेबल

6.5.17

आह्वान




आह्वान ......... 


कुछ  भी न सार्थक जीवन में, मैं बंधा हार के  बंधन में ,

करबद्ध व्यर्थ ही खड़ा रहा , मंदिर के सूने प्रांगण में। 



स्वार्थ व्यर्थ , परमार्थ व्यर्थ , अवरुद्ध हुआ चीत्कार व्यर्थ 

 मैं दीन ,  दलित सा खड़ा हुआ , अर्चना व्यर्थ , प्रार्थना व्यर्थ।      
  

अपने ही पैरों को   छूकर , आशोष दे  रहे   हाथ मेरे,

मैं भूला , खुद को ढूंढ रहा, कोई न कभी ना साथ मेरे। 


सम्बन्ध जटिल, अधिकार कुण्ठ , मनु किससे बांटे पीड़ापन ,

डाटा श्रेणी में मत गिनना , मई सतत अकिंचन , हे श्रीमन !




अधिकार वात्सल्य का खोया, खोया श्रद्धा का अपनापन ,

दुहिता की इच्छा खोयी, खोया श्रावण का रक्षा बंधन। 


रंगों की गरिमा खोयी , खोया संबंधों का दर्पण ,

खोये टूटे से बंधे तार , खोया पल पल अपना जीवन। 


कितना निराश है यह जीवन, अभिलाषा है पर डरी  डरी,

आधी से ज़्यादा उम्र हुयी , क्या करे ! कोसती खड़ी खड़ी। 


हर बार पराजय मेरी क्यों , मेरे श्रम का क्यों दाम नहीं , 

मैं भाग्यहीन क्या इतना हूँ , एक पल को भी विश्राम नहीं ? 


प्रतिबिम्ब रक्त का कहीं नहीं, कुछ धब्बे हैं धुंधलाए से ,

कुछ भूली बिसरी यादों को , हम देख रहे बौराये से। 


बाबू जी की उंगली पकड़े , हूँ पार कर रहा गलियारा ,

अम्मा ने मुझको उठा लिया , आया जो ज़रा सा अँधियारा। 


बहना की छोटी पकड़े , हूँ घूम रहा छत के ऊपर , 

छोटे भाई को गिरा दिया , सीखते हुए सायकिल चढ़ कर। 


माँ की ममता ने बांधा था म संबंधों का सुन्दर बंधन। 

आँखें मूँदी , सब छूट गया, रह गया सिर्फ कला दर्पण। 


न जाने कितने जन्मों तक, थोड़ा सिन्दूर छिड़कने को, 

लेना पड़ता फिर जन्म मुझे, सम्पूर्ण तपस्या करने को। 


मैं भाग्यहीन मिट्टी - मानव, कर्मों में लिप्त रहूँ तो क्या ?

मैं नर हूँ, नारायण तो नहीं , फल की इच्छा न करूँ तो क्या ? 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें