आह्वान .........
कुछ भी न सार्थक जीवन में, मैं बंधा हार के बंधन में ,
करबद्ध व्यर्थ ही खड़ा रहा , मंदिर के सूने प्रांगण में।
स्वार्थ व्यर्थ , परमार्थ व्यर्थ , अवरुद्ध हुआ चीत्कार व्यर्थ
मैं दीन , दलित सा खड़ा हुआ , अर्चना व्यर्थ , प्रार्थना व्यर्थ।
अपने ही पैरों को छूकर , आशोष दे रहे हाथ मेरे,
मैं भूला , खुद को ढूंढ रहा, कोई न कभी ना साथ मेरे।
सम्बन्ध जटिल, अधिकार कुण्ठ , मनु किससे बांटे पीड़ापन ,
डाटा श्रेणी में मत गिनना , मई सतत अकिंचन , हे श्रीमन !