लेबल

6.5.17

आह्वान




आह्वान ......... 


कुछ  भी न सार्थक जीवन में, मैं बंधा हार के  बंधन में ,

करबद्ध व्यर्थ ही खड़ा रहा , मंदिर के सूने प्रांगण में। 



स्वार्थ व्यर्थ , परमार्थ व्यर्थ , अवरुद्ध हुआ चीत्कार व्यर्थ 

 मैं दीन ,  दलित सा खड़ा हुआ , अर्चना व्यर्थ , प्रार्थना व्यर्थ।      
  

अपने ही पैरों को   छूकर , आशोष दे  रहे   हाथ मेरे,

मैं भूला , खुद को ढूंढ रहा, कोई न कभी ना साथ मेरे। 


सम्बन्ध जटिल, अधिकार कुण्ठ , मनु किससे बांटे पीड़ापन ,

डाटा श्रेणी में मत गिनना , मई सतत अकिंचन , हे श्रीमन !